मुक्ति बंधन

 मुक्ति बंधन

 
"हमारा देश भारत" ऐसे तीन शब्द जो आमतोर पर हर एकता की भावना से भरे लेखों, विचारों,भाषणों की शोभा को कई गुना बढ़ा देते हैं अपनी देश भक्ति का प्रदर्शन इस तरह कर हम गर्व महसूस करते हैं ऐसे विचारों पर ताली बजा और वाह-वाह बटोर कर काम समाप्त कर दिया जाता है
इसके पश्चात् सब अपने अपने घरोंदों की तरफ रुख करने लगते हैं और जब यही  भारत,  जिसका ये लोग गुणगान कर रहे थे  इनके जीवन की दहलीज़ पार करने लगता है तो यही लोग अंदर से दरवाजे को ताला जड़ लेते हैं जिन्होंने भारत को अपना बताया था वही उसे अपनाने से इंकार कर देते हैं एकता,भाईचारे के वो शब्द कहीं काफूर हो जाते हैं जहाँ कुछ समय पहले "हम सब एक थे" वहीँ कुछ ही पलों बाद "हम सब अनेक" हो जाते हैं हर चीज़ का बंटवारा होने लगता है सब "हमारा" से "मेरा" की ओर  अनुसरण करने लगता है कोई कहता है आमची मुंबई तो कोई बोले साडा  पंजाब आदि ओर इन सब मैं भारत टूटने लगता है हद तो तब हो जाती है जब हम इससे भी ज्यादा  टुकड़े अपनी मातृभूमि के धर्म,जाति,वर्गों, के आधार पर कर डालते हैं अपनी ही मातृभूमि के साथ इतना बड़ा अन्याय कर डालते हैं पहले तो हम उसे माता का दर्जा देते हैं ओर फिर उस पर जन्मे मनुष्यों को अपना मानने से इंकार कर देते हैं
मेरे द्वारा कही गयी ये बातें नजाने कितने लोगों ने कहीं होंगी लेकिन इन सब बातों  को किताबी मान कोई इन पर अमल नहीं करना चाहता क्योंकि इनको कोई यथार्थ के लिए उपयोगी नहीं समझता
हम सब नेताओं के सही रूप से कार्य न करने और किये वायदे न निभाने पर उनको कोसते हैं उनकी कथनी और करनी मैं अंतर बताते हैं लेकिन इन सब के दोषी वे अकेले नहीं हैं हम भारत की हर समस्या के पीछे उतने ही भागीदार है जितने की वो, या कहें की देश का हर दुरूपयोग आज हमारे कारण है क्योंकि हमारी भी कथनी करनी में  अंतर है हमने अपने ही देश को अपना नहीं माना हैं हम तो केवल  प्रदर्शन करते हैं.यहाँ कथनी करनी का अंतर इतना बड़ा है की इससे दूर कर पाना केवल मेरे बस का तो नहीं है
भारत के प्रति इस अंतर पर जब हमसे पुछा जाये तो हम दोषारोपण शुरू कर देते हैं कोई किसी धर्म पर तो कोई किसी जाति पर दोष लगाने लगता है
धर्म,जाति विभिन संस्कृतियाँ भारत की अनेकता का कारण नहीं है अनेकता का कारण हमारी बुधि है  बुधि भी ऐसी जो भोतिक्तावादी हो चुकी है स्वार्थों,आद्न्म्बरों से पूर्ण है जिनके योग से बुधि कुबुधि को गयी है
कुबुधि के इसी  योग से कुछ ऐसे विकार जन्मे जिन्होंने भारत से,भारत की शांति,संस्कृति को ही छीन लिया 
जैसे धर्म के साथ कुबुधि का योग हुआ तो रुदिवादितायों,अंधविश्वासों,स्वार्थ हेतु धर्म आडम्बरों का जन्म हुआ
जाति के साथ जब कुबुधि मिली तो छूआछोत, भेदभाव, उंच-नींच,दंगे, आरक्षण जैसी कलयुगी बीमारियाँ पनपी
वर्ग व्यवस्था के साथ कुबुधि का योग हुआ तो चरित्र  की जगह चित्र को महत्ता मिलने लगी. धन मूल लक्ष्य व् इज्ज़त पाने की राह बनाने लगा.
इस प्रकार भारत की प्रत्येक  विशेषता फक्र की बजाये फ़िक्र का सबब बनाने लगी. रुदिवादिताओं, अंधविश्वासों को ज्यादा  से ज्यादा अपना, हम जिस मुक्ति को प्राप्त करन चाहते हैं वोही हमें बन्धनों मैं बांध रही हैं जिनका परिणाम हम तो भुगत ही रहे हैं लेकिन इनका सबसे बड़ा भोगी हमारा भारत बन रहा है,भारतीय संस्कृति बन रही है आज भारतीय धर्मों को जिसमें हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई,जैन,बुद्ध आदि धर्मों  को रखते हैं को बेवजह आलोचना सहनी पड़  रही है.
कन्यायें मारी जा रही हैं और  उनका भार धर्म, संस्कृति पर डाल दिया जाता है
बलि अपने स्वार्थों की खातिर चढ़ाई जाती है और नाम भारतीय संस्कृति का बदनाम होता है बिना पुरे ज्ञान के कार्य किये जाते हैं मनुष्य,पशु बालियाँ दी जाती है जबकि ऐसा कुछ भी धर्म में नहीं है  धर्म तो मनुष्य के भीतर बैठे पशु की बलि मागता है.
झूठी  इज्ज़त,प्रदर्शन को बरकरार रखने के लिए स्वजनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है और जवाब दिया जाता है की हमारे धर्म,संस्कृति इस बात की अनुमति नहीं देता 
आतंकवाद फैला मासूम लोगो का खून बहाया जाता है ओर इस पाप कार्य को भी धर्म कार्य की संज्ञा दे दी जाती है
इस लेख के माध्यम से मैं ये बताना चाहुगी कि भारत के विभिन धर्म,जाति,संस्कृतियाँ; भारतीय संस्कृति के पतन के कारण नहीं है है ये तो इसकी विशेषताएं हैं केवल कुबुधि ने ही इन विकारो को उत्पन्न किया है